भारत : भूमि एवं मृदा संसाधन
हम भूमि पर निवास करते हैं। हमारे लगभग सारे आर्थिक क्रिया कलाप जैसे कृषि (Agriculture) , वानिकी (Forestry) , पशु-चरण (Pasturing), मत्स्यन (Fishing), खनन (Mining), वन्य-जीवन (Wild life), परिवहन-संचार, आदि भूमि पर ही सम्पन्न होते हैं जिसके कारण भूमि एक मौलिक संसाधन है।
भूमि संसाधन के कई भौतिक स्वरूप हैं, जैसे- पर्वत, मैदान, निम्न भूमि और घाटियाँ इत्यादि। भारत में कुल उपलब्ध भूमि के लगभग 43% भाग पर मैदान का विस्तार है, जो कृषि एवं उधोगों के विकास के लिए उपयोगी है। 30% भाग पर्वतीय क्षेत्र है, जो बारहमासी (Perennial) नदियों के प्रवाह को सुनिश्चित करते हुए पर्यटन विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान कराती हैं। देश का 27% भूभाग पठार के रूप में विस्तृत हैं , जहाँ खनिज, जीवाश्म ईंधन एवं वन सम्पदा के कोष संचित हैं।
मृदा निर्माण (Soil Formation)
पृथ्वी की ऊपरी सतह, जिस पर वनस्पतियाँ उगती, बढ़ती और फलती-फूलती हैं , मृदा (Soil ) कहलाती हैं। यह सर्वाधिक महत्तवपूर्ण नवीकरणीय प्राकृतिक संसाधन है। परन्तु इसका निर्माण अत्यंत धीमी गति से अपघटन एवं अन्य जटिल प्रक्रियाओं द्वारा होता है। एक सेंटीमीटर मोटी मृदा के निर्माण में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं। इसके नष्ट होने के साथ संपत्ति एवं संस्कृति ध्वस्त हो जाते हैं। अतः मृदा एक जीवंत- तंत्र है। मृदा के अध्धयन को
मिट्टी का रंग (colour of Soil) कणों के माप के आधार पर मिटटी के कणों को मापकर उनका वर्गीकरण निम्न भागों में किया जाता है। यह वर्गीकरण अंतरराष्ट्रीय हैमोटीमहीन बालूसिल्टचिकनी मिट्टीइन कणों की मापमिट्टी में अम्लता और क्षारीयता अम्लता और क्षारीयता दोनों पौधों के लिये हानिकारक हैं। पौधों की अम्लता और क्षारीयता हाइड्रोजन आयन के सांद्रण से मापी जाती है। इसे
मिट्टी निर्माण की प्रक्रियाएँ (Soil forming Processes )
मिट्टी निर्माण में अनेक प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं और किसी सीमा तक मिट्टी परिच्छेदिका (Soil profile ) को प्रभावित कर सकती हैं। ये प्रक्रियाएँ हैं -
अवक्षालन (Eluviation)- जब मिट्टी यांत्रिक विधि द्वारा (वर्षा और अत्यधिक वाष्पीकरण से ) अपने मूल स्थान से ऊपर से नीचे की यानि क्षैतिज रूप में हटा दिए जाते है तो वहां मिट्टी परिच्छेदिका (Soil profile) का निचला भाग दिखने लगता है इस मिट्टी के हटने की प्रक्रिया को ही अवक्षालन (Eluviation) कहा जाता है।
संपोहन (Illuviation)- जब अवक्षालन किये गये स्थान पर पुनः मिट्टी के भराव या जमा होने से उसके मिट्टी परिच्छेदिका (Soil profile) निचे से ऊपर की ओर बनने लगती है तो इस प्रक्रिया को संपोहन (Illuviation) कहते है।
निक्षालन (Leaching)- जब मिट्टी में मौजूद पोषक तत्व उच्च तापमान और वर्षा के कारण बहकर निचले स्थान पर ले जाये जाते है तो यह प्रक्रिया निक्षालन (Leaching) कहलाता है।
केलूवियेशन (Cheluviation)-यह प्रक्रिया भी निक्षालन (Leaching) की तरह है परन्तु इसमें जैविक संकुल यौगिकों (Organic complex compounds) का प्रभाव होता है।
मृदा के प्रकार (Types of Soil) सर्वप्रथम भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद(1) जलोढ़ मिट्टी या कछार मिट्टी (Alluvial soil)(2) काली मिट्टीया रेगुर मिट्टी (Black soil)(3) लाल एवं पीली मिट्टी (Red soil)(4) लैटराइट मिट्टी (Laterite soil)(5) शुष्क मृदा (Arid soils)(6) लवण मृदा (Saline soils)(7) पीटमय मृदा (Peaty soil) तथा (8) वन मृदा (Forest soils) मृदा संरक्षण के लिए 1953 में केंद्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड की स्थापना की गयी थी। मरूस्थल की समस्या के अध्ययन के लिए
मिट्टी निर्माण की प्रक्रियाएँ (Soil forming Processes )
मिट्टी निर्माण में अनेक प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं और किसी सीमा तक मिट्टी परिच्छेदिका (Soil profile ) को प्रभावित कर सकती हैं। ये प्रक्रियाएँ हैं -
अवक्षालन (Eluviation)- जब मिट्टी यांत्रिक विधि द्वारा (वर्षा और अत्यधिक वाष्पीकरण से ) अपने मूल स्थान से ऊपर से नीचे की यानि क्षैतिज रूप में हटा दिए जाते है तो वहां मिट्टी परिच्छेदिका (Soil profile) का निचला भाग दिखने लगता है इस मिट्टी के हटने की प्रक्रिया को ही अवक्षालन (Eluviation) कहा जाता है।
संपोहन (Illuviation)- जब अवक्षालन किये गये स्थान पर पुनः मिट्टी के भराव या जमा होने से उसके मिट्टी परिच्छेदिका (Soil profile) निचे से ऊपर की ओर बनने लगती है तो इस प्रक्रिया को संपोहन (Illuviation) कहते है।
निक्षालन (Leaching)- जब मिट्टी में मौजूद पोषक तत्व उच्च तापमान और वर्षा के कारण बहकर निचले स्थान पर ले जाये जाते है तो यह प्रक्रिया निक्षालन (Leaching) कहलाता है।
केलूवियेशन (Cheluviation)-यह प्रक्रिया भी निक्षालन (Leaching) की तरह है परन्तु इसमें जैविक संकुल यौगिकों (Organic complex compounds) का प्रभाव होता है।
जलोढ़ मिट्टी /दोमट मिट्टी (Alluvial Soil)
भारत में सबसे अधिक क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से जलोढ़ मिट्टी पायी जाती है। यहाँ के कुल क्षेत्रफल का लगभग 40 प्रतिशत भाग पर जलोढ़ मिट्टी मिलते है। जलोढ़ मिट्टी का निर्माण नदियों के निक्षेपण से होता है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है।इसी कारण जलोढ़ मिट्टी में लिए आवश्यक मानी जाती है। परन्तु इस मिट्टी में पोटाश एवं चूना की पर्याप्त मात्रा होती है। भारत में यह मिट्टी उत्तर के विशाल जैसे की गंगा का मैदान, सिंध का मैदान, ब्रह्मपुत्र का मैदान एवं प्रायद्वीपीये भारत (Peninsular India) में गोदावरी का मैदान, कावेरी का मैदान आदि नदी घाटियों में पाये जाते है।
जलोढ़ मिट्टी गेहूँ के फसल के लिए उत्तम मानी जाती है। इसके अलावा इसमें धान, गन्ना, चना, तम्बाकू एवं आलू की खेती भी की जाती है। जलोढ़ मिट्टी का निर्माण बलुई मिट्टी एवं चिकनी मिट्टी के मिलने से हुई है। जल को अवषोषण करने की क्षमता सबसे अधिक दोमट मिट्टी में होती है।
आयु के आधार पर इसे
बिहार में बालू मिश्रित जलोढ़ मिट्टी को
काली मिट्टी या रगूर (Black Cotton Soil or Regur Soil)
काली मिट्टी क्षेत्रफल की दृष्टिकोण से भारत में दूसरा स्थान रखता है। भारत में लगभग 5.46 लाख वर्ग किमी0 पर काली मिट्टी का विस्तार है। भारत में सबसे ज्यादा काली मिट्टी महाराष्ट्र राज्य में एवं दूसरे स्थान पर गुजरात में पाई जाती है। काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी के उदगार के कारण बेसाल्ट चट्टान के टूटने से हुई है। दक्षिण भारत में काली मिट्टी को केरल में इसे को
काली मिट्टी में भी नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है। इसमें लोहा, चूना, मैग्नीशियम एवं एलूमिना की मात्रा अधिक होती है। इसमें पोटाश की मात्रा भी पर्याप्त होती है।
काली मिट्टी कपास (Cotton) के उत्पादन के लिए सबसे उत्तम मानी जाती है।जिस कारन इसे Black Cotton Soil)के नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा इस मिट्टी में चावल, मसूर, चना, खेसाड़ी की भी अच्छी उपज होती है।
काली मिट्टी में लोहे की अंशयह मिट्टी भीगने पर तुरंत चिपचिपा एवं सुखने पर बहुत अधिक कड़ी एवं गहरी दरार वाली हो जाती है जिससे अच्छी तरह से हवा की नाइट्रोजन इसे प्राप्त होती है।
लाल मिट्टी (Red Soil)
क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से भारत में लाल मिट्टी का तीसरा स्थान है। भारत में 5.18 लाख वर्ग किमी0 पर लाल मिट्टी का विस्तार है। लाल मिट्टी का निर्माण भारत में क्षेत्रफल की दृष्टिकोण से सबसे अधिक अधिकांश खनिज लाल मिट्टी के नीचे ही मिलती हैं।
लाल मिट्टी में भी नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है।इस मिट्टी में मौजूद तमिलनाडु के बाद छत्तीसगढ़ , झारखण्ड , मध्यप्रदेश एवं उड़ीसा राज्यों में लाल मिट्टी मिलते है।
पीली मिट्टी - जिन लाल मिट्टी वाले क्षेत्रो में अधिक वर्षा होती है वहा परिणामस्वरूप लाल मिट्टी के रासायनिक तत्व जल के साथ घुल के अलग हो जाते है, जिसमें उस मिट्टी का रंग लाल से पीला मिट्टी पड़ जाता है। भारत में सबसे अधिक पीली मिट्टी केरल राज्य में है।
लैटेराइट मिट्टी (Laterite Soil)
भारत में क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से लैटेराइट मिट्टी को चौथा स्थान प्राप्त है। यह मिट्टी भारत में 1.26 लाख वर्ग किमी0 क्षेत्र पर फैला हुआ है। लैटेराइट शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के लैटर (Later ) शब्द से हुआ है , शाब्दिक अर्थ 'ईट ' होता है। इस प्रकार के मिट्टी का विकास उच्च तापमान (High Temperature) एवं अत्यधिक वर्षा (High Rainfall) वाले क्षेत्रों में निक्षालन (Leaching) से हुआ है।
इस मिट्टी में लौह-ऑक्साइड एवं अल्यूमिनियम ऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है लेकिन नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश, चुना एवं कार्बनिक तत्वों की कमी पायी जाती है। लैटेराइट मिट्टी चाय एवं कॉफी फसल के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है। भारत में लैटेराइट मिट्टी सह्याद्रि की चोटियों, पूर्वी घाट, और राजमहल की पहाड़ियों (झारखण्ड) पाया जाता है। इसके अलावे असम , कर्नाटक एवं तमिलनाडू राज्य में अधिक मात्रा में पाये जाते है। यह मिट्टी पहाड़ी एवं पठारी क्षेत्र में पाये जाते है। यह मिट्टी काजू फसल के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है।
इस मिट्टी का भी रंग लाल होता है। जब वर्षा होती है तब इस मिट्टी से चूना-पत्थर बहकर अलग हो जाती है, जिसके कारण यह मिट्टी सुखने पर लोहे के समान कड़ा हो जाती है।
वन और पर्वतीय मिट्टी (Forest and Mountain Soil)
पर्वतीय मिट्टी में जीवांश, कंकड़ एवं पत्थर की मात्रा अधिक होती है।इसमें पोटाश, फास्फोरस एवं चूने की कमी होती है। पहाड़ी क्षेत्र में खास करके बागबानी कृषि होती है। पहाड़ी क्षेत्र में ही झूम कृषी होती है। झूम खेती सबसे ज्यादा नागालैंड में की जाती है। पर्वतीय क्षेत्र में सबसे ज्यादा गरम मसाला की खेती की जाती है।
शुष्क एवं मरूस्थलीय मिट्टी (Arid and desert soils)
शुष्क एवं मरूस्थलीय मिट्टी में घुलनशील लवण एवं नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है। परन्तु फास्फोरस एवं कार्बनिक तत्वों (जीवांश) की मात्रा कम होती है। इसमें संस्तरों का विकास काफी कम पाया जाता है।
इसप्रकार की मिट्टी पश्चिमी राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, पश्चमी हरियाणा और दक्षिणी पंजाब में पायी जाती है। यह मिट्टी तेलहन फसल (Oil Seed) के उत्पादन के लिए अधिक उपर्युक्त मानी जाती है। जल की व्यवस्था होने के बाद मरूस्थलीय मिट्टी में भी अच्छी फसल की उत्पादन होती है। इस मिट्टी में तिलहन के अलावा ज्वार , बाजरा एवं रागी की खेती होती है। यह सबसे कम उपजाऊ मिट्टी होती है।
इसप्रकार की मिट्टी पश्चिमी राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, पश्चमी हरियाणा और दक्षिणी पंजाब में पायी जाती है। यह मिट्टी तेलहन फसल (Oil Seed) के उत्पादन के लिए अधिक उपर्युक्त मानी जाती है। जल की व्यवस्था होने के बाद मरूस्थलीय मिट्टी में भी अच्छी फसल की उत्पादन होती है। इस मिट्टी में तिलहन के अलावा ज्वार , बाजरा एवं रागी की खेती होती है। यह सबसे कम उपजाऊ मिट्टी होती है।
लवणीय मिट्टी या क्षारीय मिट्टी (Saline and alkaline soils)
लवणीय मिट्टी को
भारत में क्षारीय मिट्टी पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान एवं केरल के तटवर्ती क्षेत्र में पाये जाते हैं। क्षारीय मिट्टी में
जैविक मिट्टी या पीट मिट्टी (Peaty and marshy soils)
दलदली क्षेत्रों में काफी अधिक मात्रा में जैविक प्रदार्थो के जमा होने से जैविक मिट्टी (Peat Soil) का निर्माण होता है। जैविक मिट्टी को पश्चिम बंगाल के में पायी जाती है। केरल में इसप्रकार की मिट्टी में नमक के अंश भी पाए जाते हैं, यहाँ इसे लवण की मात्रा अधिक होती है। इस मिट्टी की उर्वरा शक्ति काफी कम होती है। जल की मात्रा कम होते ही इन मिट्टियों में चावल की कृषि की जाती है , तराई प्रदेश में गन्ने की कृषि भी की जाती है।
भू-क्षरण (Soil Erosion)
मिट्टी का अपरदनकारी दूतों (Agent of Erosion) के द्वारा अपने स्थान से स्थानांतरित कर लेना या कट देना भू-क्षरण (Soil Erosion) कहलाता है। यह यांत्रिक या रासायनिक किसी भी प्रकार से हो सकता है। अपरदनकारी दूत जैसे गतिशील जल (Running Water), पवन (Wind), हिमानी (Glacier) और समुंद्री लहरों (Sea waves) इत्यादि द्वारा मिट्टी का कटाव एवं स्थानांतरण होता है। पहाड़ी भागों में गुरुत्व बल (Gravitational Force) के कारण भी मिट्टी कट के निचे सरकते है।
भू-क्षरण (Soil Erosion)
मिट्टी का अपरदनकारी दूतों (Agent of Erosion) के द्वारा अपने स्थान से स्थानांतरित कर लेना या कट देना भू-क्षरण (Soil Erosion) कहलाता है। यह यांत्रिक या रासायनिक किसी भी प्रकार से हो सकता है। अपरदनकारी दूत जैसे गतिशील जल (Running Water), पवन (Wind), हिमानी (Glacier) और समुंद्री लहरों (Sea waves) इत्यादि द्वारा मिट्टी का कटाव एवं स्थानांतरण होता है। पहाड़ी भागों में गुरुत्व बल (Gravitational Force) के कारण भी मिट्टी कट के निचे सरकते है।
भूमि निम्नीकरण
जब भूमि कृषि लिए अयोग्य होने लगे तो इसे भूमि निम्नीकरण कहते है।
भूमि निम्नीकरण कारण -
खनन (Mining) -जब खनन क्रिया के बाद उस स्थान पर बने खाइयों एवं मालवों को खुला छोड़ दिया जाये। इससे कई खदानों वाले राज्य जैसे झारखण्ड, छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश आदि खनन के कारण भूमि निम्नीकरण का शिकार हुऐ है।
वनोन्मूलन (Deforestation) - ओडिशा में वनोन्मूलन के कारण भूमि निम्नीकरण हुआ है।
अति पशुचारण (Over Grazing) -गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अति पशुचारण से भूमि पर कुप्रभाव पड़ा है
अति सिंचन (Over irrigation) - अत्यधिक सिंचाई से भूमि में जलाक्रांतता (Water Logging ) की समस्या पैदा होती है जिससे मिट्टी में लवणीय और क्षारीय गुण बढ़ जाते है और भूमि निम्नीकरण शिकार होता है।
खनिज आधारित उधोग (Mineral based industries)- कई ऐसे उधोग है जैसे की सीमेंट उधोग, मृदा बर्तन निर्माण उधोग, मूर्ति-निर्माण जिनमे चुना पत्थर, खड़िया, सेलखड़ी के पीसने से वायु में धूल विसर्जित हो जाते है जो धीरे धीरे भूमि पर परत के रूप में जमा होते हैं परिणामस्वरूप मिट्टी के जल अवशोषण की क्षमता कुप्रभावित होती है।
उधोगों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ भूमि और जल दोनों को प्रदूषित करते हैं।
भूमि निम्नीकरण संरक्षण के उपाय -
फसल-चक्रण (Crop Rotation)- फसल-चक्रण द्वारा मिट्टी के पोषणीय स्तर को बरक़रार रखा जा सकता है। गेहूँ, कपास, मक्का, आलू आदि की लगातार खेती से मिट्टी की गुणवत्ता में कमी आ जाती है अतः तिलहन-दलहन पौधे की खेती के द्वारा पुनप्राप्त किया जा सकता है। इससे नाइट्रोजन का स्थिरीकरण होता है।
समोच्च जुताई (Contour Ploughing)- पहाड़ी क्षेत्रों में समोच्च जुताई या सीढ़ीनुमा खेत बनाकर खेती करने से मिट्टी अपरदन को रोका जा सकता है।
पट्टिका कृषि (Strip Farming)- पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में पट्टिका कृषि उत्तम होती है। इस प्रकार की कृषि में फसलों के बीच घास की पट्टियाँ विकसित किया जाता है।
रसायनों उचित उपयोग- रसायनों के उचित उपयोग कर मिट्टी का संरक्षण किया जा सकता है क्योंकि रसायनों के सतत उपयोग से मिट्टी के पोषक तत्त्वों में कमी आने लगती है।
वृक्षारोपण (Plantation) - खुले स्थानों पर वृक्ष लगाकर भी मिट्टी का संरक्षण किया जा सकता है।
जब भूमि कृषि लिए अयोग्य होने लगे तो इसे भूमि निम्नीकरण कहते है।
भूमि निम्नीकरण कारण -
खनन (Mining) -जब खनन क्रिया के बाद उस स्थान पर बने खाइयों एवं मालवों को खुला छोड़ दिया जाये। इससे कई खदानों वाले राज्य जैसे झारखण्ड, छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश आदि खनन के कारण भूमि निम्नीकरण का शिकार हुऐ है।
वनोन्मूलन (Deforestation) - ओडिशा में वनोन्मूलन के कारण भूमि निम्नीकरण हुआ है।
अति पशुचारण (Over Grazing) -गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अति पशुचारण से भूमि पर कुप्रभाव पड़ा है
अति सिंचन (Over irrigation) - अत्यधिक सिंचाई से भूमि में जलाक्रांतता (Water Logging ) की समस्या पैदा होती है जिससे मिट्टी में लवणीय और क्षारीय गुण बढ़ जाते है और भूमि निम्नीकरण शिकार होता है।
खनिज आधारित उधोग (Mineral based industries)- कई ऐसे उधोग है जैसे की सीमेंट उधोग, मृदा बर्तन निर्माण उधोग, मूर्ति-निर्माण जिनमे चुना पत्थर, खड़िया, सेलखड़ी के पीसने से वायु में धूल विसर्जित हो जाते है जो धीरे धीरे भूमि पर परत के रूप में जमा होते हैं परिणामस्वरूप मिट्टी के जल अवशोषण की क्षमता कुप्रभावित होती है।
उधोगों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ भूमि और जल दोनों को प्रदूषित करते हैं।
भूमि निम्नीकरण संरक्षण के उपाय -
फसल-चक्रण (Crop Rotation)- फसल-चक्रण द्वारा मिट्टी के पोषणीय स्तर को बरक़रार रखा जा सकता है। गेहूँ, कपास, मक्का, आलू आदि की लगातार खेती से मिट्टी की गुणवत्ता में कमी आ जाती है अतः तिलहन-दलहन पौधे की खेती के द्वारा पुनप्राप्त किया जा सकता है। इससे नाइट्रोजन का स्थिरीकरण होता है।
समोच्च जुताई (Contour Ploughing)- पहाड़ी क्षेत्रों में समोच्च जुताई या सीढ़ीनुमा खेत बनाकर खेती करने से मिट्टी अपरदन को रोका जा सकता है।
पट्टिका कृषि (Strip Farming)- पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में पट्टिका कृषि उत्तम होती है। इस प्रकार की कृषि में फसलों के बीच घास की पट्टियाँ विकसित किया जाता है।
रसायनों उचित उपयोग- रसायनों के उचित उपयोग कर मिट्टी का संरक्षण किया जा सकता है क्योंकि रसायनों के सतत उपयोग से मिट्टी के पोषक तत्त्वों में कमी आने लगती है।
वृक्षारोपण (Plantation) - खुले स्थानों पर वृक्ष लगाकर भी मिट्टी का संरक्षण किया जा सकता है।
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